यूनिवर्सल होना,
- पहले समझते है कि यहां यूनिवर्सल होने का क्या अर्थ है - यहां इसका अर्थ है किसी भी वस्तु, ज्ञान, तकनीक का हर जगह पर उपलब्ध होना।
विज्ञान अथवा तकनीक आज हर जगह उपलब्ध है। ये आपके सामने आपकी स्क्रीन पर है। आपको बस कुछ शब्द लिखने है और ये आपके सामने आ जाएगी।
पर क्या ये सही है? सही अर्थात चीज़ों या तकनीक का यूनिवर्सल रूप से उपलब्ध होना।
हां ये बिल्कुल सही है इसमें गलत कुछ भी नहीं, बल्कि इससे तो आम जिन्दगी में सहूलियत हो जाती है। परन्तु हर एक के दो पहलू होते हैं। जहां इसके अनेक फायदे है तो कुछ नुकसान भी हैं।
इन्हें यहां यूनिवर्सल ट्रुथ या साइंटिफिक ट्रूठ कहा जाता है, जिसका मतलब है ऐसी बात जो हर जगह मान्य है जैसे 2+2=4 ,सूर्य पूर्व से निकलता है, चार दिशाएं है, पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगती है, ये सब यूनिवर्सल या साइंटिफिक ट्रुथ हैं।
इसके अलावा एक और बात यह है कि विज्ञान या तकनीक हर जगह कारगर होगी अगर परिस्थिति अनुकुल हो तो । आप इसे ऐसे समझ सकते हैं, आम हिमालय में भी उगा सकते हैं अगर प्रकृति अनुकुल हो तो।
परंतु आज ऐसा नहीं है इंसान ने प्रकृति के विपरीत जाकर परिस्थितियों को जबरन अनुकुल बनाना शुरू कर दिया है। वो इसके लिए कुछ भी कर रहा है। उदाहरण के तौर पर आप पॉलीहाउस या पोलीफार्म ले लीजिए ,इसमें जबरन आवरण को अनुकुल बानाया जाता है और बेमौसम भी फल व सब्जियां उगाई जाती हैं।
आप सोच रहे होंगे कि इसका बुरा प्रभाव क्या है? तनिक या विज्ञान का हर जगह उपलब्ध होना कों सी बुरी बात है और इसका क्या ही बुरा प्रबह पड़ेगा ?
- इन डेप्थ,
हम सभी जानते है कि कोई भी भाग या देश छोटे -छोटे भागों में बटा हुआ होता है जैसे एशिया कई देशों से मिलकर बना है ,वैसे ही भारत भी छोटे-छोटे हिस्सों में बटा हुआ है जिसमें हर हिस्से की अलग जलवायु है ,अलग संस्कृति है , अलग भाषा ,बोली, वेशभूषा, व अलग-अलग जरूरतें है। उदाहरण के तौर पर , राजस्थान, हरियाणा ,हिमाचल, मुंबई, केरल सभी एक दूसरे से बिल्कुल अलग है। आप इसे और भी छोटे रूप में देख सकते है प्रत्येक शहर के आस पास काफी गांव है, वे भी एक दूसरे से काफी भिन्न हैं।
- प्रभाव: ये अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी ये अलग विषय है।
- वेशभूषा: अलग-अलग स्थानों की अलग-अलग वेशभूषा होती है। परंतु आज ऐसा है कि आज आपको राजस्थान में भी लोग पैंट-शर्ट पहने हुए मिल जायेगे । भले ही वहां कि परंपरिक वेशभूषा कुछ और ही क्यों न हो, यहां महिलाएं व पुरुषों की वेशभूषा में भी काफी अंतर है।
- भाषा/बोली: भाषा किसी भी संस्कृति का आधार मानी जाती है। कहा भी गया है " भाषा का बीज ही न बचेगा तो संस्कृति का पेड़ कैसे उगेगा"। आज हर एक वस्तु के यूनिवर्सल होने के साथ साथ भाषा भी यूनिवर्सल हुई है। आज अंग्रेजी भाषा को यूनिवर्सल माना जा सकता है। एक से ज्यादा भाषा सीखना कोई बुरी बात नहीं है, ये आज की आवश्यकता है परंतु ऐसा भी देखा जा सकता है लोग अपनी मूल भाषा / बोली को छोड़ते जा रहें है। उदाहरण के तौर पर, आपको स्कूलों में ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जिन्हें हिंदी में गिनती नहीं आती या पहाड़े नहीं आते वो बोलेंगे की हम सिर्फ इंग्लिश में ही जानते हैं। और यदि किसी को हिंदी आती है तो उसे अपनी स्थानीय भाषा नहीं आती। ऐसा देखा गया है, जैसे हरियाणा के बच्चो को हरयाणवी का न आना , ऐसा प्रत्येक जगह पर देखा जा सकता है के शहरों के लोग अपनी मूल भाषा /बोली को भूलते जा रहें है और अपने बच्चो को भी नहीं सिखाते या मूल भाषा को बढ़ावा नहीं देते।
- त्योहारों पर प्रभाव: इसी प्रकार त्योहारों में भी बदलाव देखा जा सकता है। इसे उदाहरण से समझते हैं- आप देखतें है कि क्रिसमस, न्यू ईयर, मदर्स डे ,फादर्स डे, वैलेंटाइन्स डे। ये सभी दिवस संसार में हर जगह मनाए जाते हैं। इन्हें भी हम यूनिवर्सल कह सकते हैं इन्हें मनाना चाहिए परंतु देखा गया है कि जितनी धूम धाम से इन्हें मनाया जाता है उतनी धूम धाम से लोहड़ी ,बैसाखी, तीज ,भाई दूज ,मकर सक्रांति आधी नहीं मनाए जाते व गीत नहीं गाए जाते। तीज के दिन आपको झूले दिखाई नहीं देंगे जबकि वैलेंटाइन्स डे पर आपको हर दुकान व रेस्तरां सजा मिल जाएगा। ऐसा ही कुछ बदलाव विवाह शादियों में भी देखा जा सकता है। अपनी पारंपरिक गतिविधियों को छोड़ कर नई नई चीजें अपनाई जा रही है। ( खैर ये पूर्णतया अलग चर्चा का विषय है)
- आर्किटेक्चर पर प्रभाव: जैसा कि पहले भी बताया गया है कि कोई भी स्थान छोटे छोटे हिस्सों से मिलकर बना है। हर भाग की अलग विशेषता व अपनी जरूरत है। इसी प्रकार हर एक भाग का अपना आर्किटेक्चर होता है जिसे वर्नाक्युलर आर्किटेक्चर कहा जाता है (ये किसी भी स्थान विशेष कि अपने आस पास उपलब्ध संसाधनों को इस्तेमाल करके रहने लायक जगह बनाने की तकनीक है।) अगर हम ध्यान दे तो आपको मिलेगा कि भिन्न भिन्न स्थानों का अपना आर्किटेक्चर है जो जलवायु, मौसम, टोपोग्राफी व जरूरत के अनुसार बदलता रहता है। उदाहरण के तौर पर, पहाड़ी इलाकों में अलग तरह के घर, समुद्र के आस पास अलग तरह के व समतल स्थानों पर अलग तरह के घर या बिल्डिंग देखने को मिल जाएंगी।
- आर्किटेक्चर में यूनिवर्सल क्या?
हम पक्की इंटो और सीमेंट या आरसीसी, व पेन्टस को यूनिवर्सल कह सकते हैं। जैसा की देखा जा सकता है की किसी भी स्थान का वर्नाक्युलर आर्किटेक्चर लुप्त होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर हरियाणा व पंजाब का आर्किटेक्चर एकदम हाशिए पर है जो आने वाले कुछ वर्षों में पूर्णतः ख़तम हो जाएगा और हर जगह आपको देखने को मिलेगा तो सिर्फ पक्के घर जोकि पक्की इंटों , सीमेंट व सरिए से बने हैं।
इसका मुख्य प्रभाव उत्तरी भारत के लगभग सभी राज्यों में देखा जा सकता है। प्रत्येक जगह पर सीमेंट ने कब्जा किया हुआ है। और ये सोचने का विषय है क्योंकि अगर ध्यान दिया जाए तो किसी भी स्थान का वर्नाक्युलर आर्किटेक्चर ही वहां के लिए सबसे अनुकुल होता है।अगर आप अलग वस्तुओं को देखा देखी में इस्तेमाल करते हैं तो फिर वो बाद में परेशानी ही देती हैं। ये समझना और भी आसान होगा अगर आप समझें के राजस्थान कि तकनीक अगर हिमाचल या केरल में उपयोग में लाई जाए तो वो कितनी ही कारगर होगी।
ये प्रभाव सही है या गलत यह बात विचार करने योग्य है।
हम यहां राजस्थान का उदाहरण लेते हैं, वहां की धरोहरों को आज भी काफी हद तक संजो कर रखा हुआ है। बीकानेर (राजस्थान) की रामपुरिया हवेली, गजनेर पैलेस, जूनागढ़ किला आदि आज भी अच्छी हालत में हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इन इमारतों को ऐतिहासिक धरोहर घोषित किया गया है और इन्हें नुकसान पहुंचाना गैर - कानूनी है।
किन्तु साथ ही साथ यह भी देखा जा सकता है की इनके आसपास की बाकी इमारतों में काफी बदलाव आया है। आज जिन इमारतों कि देखभाल नहीं कि गई को खंडहर बन गई हैं। स्थानीय लोगों से बात करके पता चला कि इन इमारतों की देखभाल के लिए कोई कारीगर या मिस्त्री ही नहीं बचे जो इन्हें संजोने में मदद कर सके। आज इतने आधुनिक औजार होने के बावजूद भी कारीगर इन इमारतों को ज्यों का त्यों रख पाने में सक्षम नहीं हैं।
आसपास कि इमारतें धीरे धीरे सीमेंट के डिब्बों में परिवर्तित होती जा रही हैं। सीमेंट की ऐसी इमारतें जिनमें 5-10 वर्षों में ही दरारें आ जाती हैं जो कि आज की परेशानियों के अनुसार कोई खास हल नहीं है।किन्तु वो कला या वो वरनक्युलर आर्किटेक्चर जो 400 सालों से खड़ा है उसकी तकनीक लुप्त होती जा रही है। और यह सिर्फ शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि गावों में भी काफी बदलाव देखे जा सकते हैं।
उदाहरस्वरूप हम जालवाली गांव, बीकानेर को ही के लेते हैं।
गांव के बुजुर्गों से जानकारी मिली कि गांव लगभग बीकानेर के साथ ही के समय में बसाया गया था।
लोगों ने स्थानीय संसाधनों को जुटा कर जीवन व्यापन करना शुरू कर दिया था। किन्तु अब गावों का भी शहरीकरण होने लगा है। किसी भी ग्राम में आज वो लगभग सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं जो कि किसी शहर में होती हैं। किन्तु इन्हीं सब सुविधाओं के साथ साथ सीमेंट, आरसीसी इत्यादि भी गावों में आया। अब लोगों ने अपने घर लकड़ी, सन ड्राइड इटों, गोबर, खीप, आदि से बनाना कम कर दिया है और पक्के घर (जोकि सीमेंट, आरसीसी, टाइलो, केमिकल पैंट्स आदि से बने हैं) बनाने शुरू कर दिए हैं। गांव में कुंडी (पानी स्टोर करने वाली) कि जगह प्लास्टिक कि टंकी, फर्श में चिकनी मिट्टी की जगह टाइल, और दीवारों में सीमेंट ने अपनी जगह बना ली है।
आपके मन में सवाल आया होगा कि हर किसी की पक्के घर व तमाम अन्य सुख सुविधाओं की इच्छा होती है तो गावों में लोग ऐसी इच्छा क्यों ना करें? क्यों वे लोग पक्के घर ना बनाएं?
सवाल बिल्कुल जायज़ है किन्तु बात यहां सिर्फ गावों कि नहीं शहरों कि भी है शहरों में भी लोगों को मिट्टी से जुड़ना चाहिए उन्हें भी घरों में ऐसी तकनीक अपनानी चाहिए जो कि पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए व स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक न हो।
इसकी शुरुआत यहां से होगी कि पहले जो गावों से वरनाक्युलर आर्किटेक्चर लुप्त हो रहा है उसे बचाया जाए। ऐसा इसलिए किया जाना चाहिए किसी भी स्थान की स्थानीय कला अथवा संसाधन ही वहां के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं, और अगर इन्हें जरा सी सूझ बुझ के साथ इस्तेमाल किया जाए तो ये आज कि सभी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। विभिन्न विश्वविदयालयों में छात्रों व प्रोफेसरों ने, लौरी बेकर,
तथा कई अन्य लोगों ने ये सिद्ध भी करके दिखाया है, जिनकी वजह से आज हमारे पास बिल्डिंग बनाने के काफी विकल्प हैं।
वीविंग वॉल, ब्रीदिंग वॉल, रेमड अर्थ वॉल, थैच रूफ, नेचुरल पैंट्स, नेचुरल प्लास्टर, वैदिक प्लास्टर, गोबर की इटें , हेंप क्रीट आदि काफी सारे विकल्प हैं, जोकि स्वास्थ्य के साथ साथ पर्यावरण के लिए भी लाभदायक हैं।
फिर भी गावों का शहरीकरण हो रहा है। बाकी सुविधाएं सभी को मिलनी चाहिए किन्तु जहां तक आर्किटेक्चर की बात है तो उपरोक्त तकनीकों अथवा मैटेरियल्स को इस्तेमाल में लाया जा सकता है। हमें जरूरत है तो सिर्फ थोड़े से बदलाव की और देखा देखी में हर जगह एक जैसे मैटेरियल्स का (सीमेंट, आरसीसी, केमिकल्स, प्लास्टिक के मैटेरियल्स, सिंथेटिक पैंट्स जिन्हें आज यूनिवर्सल मैटेरियल्स बना दिया गया है) इस्तेमाल कम से कम करने की। अगर ऐसा ही चलता गया तो हम अंदाजा लगा सकते हैं कि कुछ ही वर्षों में वरनाक्युलर आर्किटेक्चर के नाम पर हमें सिर्फ किताबों में ही पढ़ने को मिलेगा या अगर कुछ इमारतें सहेजी भी गई है तो उनकी तकनीक जानने अथवा बताने वाला कोई कारीगर नहीं होगा।
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